बसंत पंचमी

Goddess Durga Photo by Sonika Agarwal from Pexels
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बसंत पंचमी

हिंदी कैलेण्डर के अनुसार माघ शुक्ल पंचमी को बसंत पंचमी का उत्सव देश भर में मनाया जाता है। इस बार यह तिथि पांच फरवरी को पड़ रही है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा-उपासना करने का विधान है। क्योंकि बसंत पंचमी के दिन ही देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था। 


जो महत्व शस्त्र पूजा करने वाले यौद्धाओं के लिये विजयादशमी का है, वैसा ही महत्व विद्दार्थियों, कलाकारों, संगीतकारों, कवि, लेखक आदि विद्योपार्जन में लगे लोगों के लिये बसंत पंचमी का है। इस पर्व का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व भी है। ब्रह्म वैवर्त पुराण और मत्स्य पुराण में इससे संबंधित कथा आती है।


लोक-कथा के मुताबिक सृष्टि का सृजनकार्य पूरा कर लेने के बाद ब्रह्मा जी एक बार इसमें विचरण करने को निकलते हैं। पर उन्हें मनुष्यों और दूसरे जीव-जंतुओं से परिपूर्ण यह सृष्टि काफी उदासीन, शांत और नीरस लगी। यह देखकर ब्रह्मा जी ने भगवान् विष्णु का आह्वान करते हुये अपने कमंडल से थोड़ा जल लेकर धरती पर छिड़का। विष्णु जी प्रकट हुये तो ब्रह्मा जी ने उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया। तब विष्णु भगवान् ने आदि-शक्ति मां दुर्गा की आराधना की।


भगवती दुर्गा जी सामने आईं। और उनके शरीर से एक उज्ज्वल तेज निकलकर एक चार भुजाओं वाली सुंदर स्त्री के रूप में बदल गया। उनके एक हाथ में वीणा, एक में पुस्तक, एक में माला और एक हाथ वरमुद्रा में था। फिर ब्रह्मा जी की इच्छा से उस देवी ने अपनी वीणा के तार छेड़ दिये। जिससे एक अलौकिक मधुर संगीत उत्पन्न हुआ और सभी प्रणियों को वाणी और स्वर की प्राप्ति हुई। संगीत की उत्पत्ति यहीं से हुई। और सभी प्राणियों को स्वर प्रदान करने के कारण इन देवी का नाम सरस्वती पड़ा। आदि-शक्ति मां भगवती की आज्ञा से सरस्वती ब्रह्मा जी की अर्द्धांगिनी हुईं। 


हालांकि देवी सरस्वती को लेकर तमाम पौराणिक आख्यान मौज़ूद हैं। यह भी माना जाता है कि इनका जन्म ब्रह्मा जी के मुख से हुआ। पश्चिमी भारत में सरस्वती जी को सूर्य की पुत्री मानते हैं। तो पूर्वी भारत में पार्वती की। उन्हें भगवान् विष्णु की तीन पत्नियों गंगा, लक्ष्मी और सरस्वती में से एक माना जाता है। दूसरी ओर एक यह भी मान्यता है कि इनका विवाह शंकर और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के साथ हुआ।


एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवी सरस्वती कृष्ण भगवान् को देखकर उन पर मोहित हो गईं। पर कृष्ण तो अपनी राधा के प्रति ही समर्पित थे। फिर भी उन्होंने सरस्वती जी को यह वरदान दिया कि हर साल माघ महीने की शुक्लपक्ष की पंचमी को तुम्हारी विद्या और ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जायेगा। साथ ही कृष्ण भगवान् ने सबसे पहले खुद ही इस तिथि पर उनकी पूजा-अर्चना की। और तभी से प्रत्येक वर्ष माघ शुक्ल पंचमी को सरस्वती-पूजन की परंपरा चली आ रही है।


ऐसे ही अतीत की अनेक प्रेरक कथायें बसंत पंचमी से जुड़ी हैं। त्रेतायुग में रावण द्वारा सीता का अपहरण करने के बाद जब भगवान् राम उनकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े तो रास्ते में दण्डकारण्य यानी दण्डक वन भी पड़ता है। जहां शबरी नाम की एक भीलनी रहा करती थी। कथा प्रसिद्ध है कि भगवान् जब उसकी कुटिया में पहुंचते हैं तो वह सुध-बुध खो बैठी। और अपने चखे हुये जूठे बेर उन्हें खिलाने लगी। और प्रेम के इस अलौकिक प्रवाह में भगवान् राम उसके जूठे बेर खाते गये। 


प्रेम में पगी जूठे बेरों वाली इस घटना को विभिन्न विद्वानों और कथाकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। पर इसमें कहीं कोई मतभेद नहीं कि जिस दिन भगवान् राम दण्डकारण्य में भीलनी शबरी की कुटिया पर पहुंचे थे वह बसंत पंचमी का दिन था। दण्डकारण्य का क्षेत्र आज मध्य प्रदेश और गुजरात सूबों में फैला है। और गुजरात के डांग जिले में आज भी वह जगह देखी जा सकती है जहां शबरी का आश्रम था। यहां पर एक शबरी माता मंदिर भी है। स्थानीय लोग वहां स्थित एक शिला को पूजते आये हैं। जिसके बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में बसंत पंचमी के दिन जब भगवान् राम यहां आये थे तो इसी पर बैठे थे।


इस तरह हम देखते हैं कि भूतकाल की अनेक गाथायें बसंत पंचमी से जुड़ी हैं। इस दिन का पौराणिक ही नहीं ऐतिहासिक महत्व भी है। बसंत पंचमी का यह दिन हमें दिल्ली के अंतिम हिंदू सुल्तान कहे जाने वाले पृथ्वीराज चौहान की याद भी दिलाता है। कहते हैं कि बारहवीं सदी के अंतिम भाग में विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी के साथ युद्ध करते हुये उन्होंने उसे सोलह बार हराया। पर हर बार गोरी को छोड़ दिया। लेकिन सत्रहवीं बार जब मुहम्मद गोरी जीता तो उसने पृथ्वीराज चौहान को बंदी बना लिया। उसने उनकी आंखें फोड़ दीं। 


पर पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण चलाने में कुशल थे। और मुहम्मद गोरी भी उनकी यह तारीफ़ बहुत सुन चुका था। सो, मृत्युदंड देने से पहले वह पृथ्वीराज चौहान की तीरंदाज़ी की इस कला को देखना चाहता था। इसके लिये भव्य आयोजन किया जाता है। अपने दरबार में मुहम्मद गोरी सिंहासन पर बैठता है। और उसके पास ही लगे तवों पर चोट होने से जो आवाज निकलती उसी पर पृथ्वीराज चौहान को शब्दभेदी बाण चलाने थे। इस बीच पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंदबरदाई भी वहां मौज़ूद होते हैं। जो इशारों-इशारों में पृथ्वीराज चौहान को गोरी की ‘पोज़ीशनिंग’ बता देते हैं। यानी कि फिलहाल वह उनसे कितनी दूरी और ऊंचाई पर है। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान की सधी हुई प्रत्यंचा से जो बाण निकलता है वह मुहम्मद गोरी की छाती चीर देता है। इसके साथ ही पूरे दरबार में हलचल मच जाती है। और तभी पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई एक-दूसरे के सीने में कटार घोंपकर आत्मबलिदान दे देते हैं। 


बसंत पंचमी का दिन हमें वीर हकीकत राय की याद भी दिलाता है। जिसने अपना धर्म-परिवर्तन करने की बजाय मौत को गले लगा लिया। कहते हैं कि हकीकत राय का मासूम चेहरा देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गई। पर बालक हकीकत ने कहा कि जैसे मैं अपने धर्म का पालन कर रहा हूं वैसे ही तुम्हें भी करना चाहिये। इसके बाद जल्लाद ने दिल कड़ा करके तलवार उठाई और हकीकत राय के गर्दन पर चला दी। किंवदंती है कि हकीकत का सिर कटने के बाद जमीन पर नहीं गिरा। सीधे आकाश में चला गया। वीर हकीकत राय के बलिदान की यह घटना लाहौर में २३ फरवरी, १७३४ यानी बसंत पंचमी के दिन ही हुई थी।


इसी तरह बसंत पंचमी से हमें कूकापंथ के आदिपुरुष गुरू राम सिंह कूका का स्मरण हो आता है। जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में सबसे पहले अंग्रेजी शासन का बहिष्कार करते हुये अपनी स्वायत्त डाक और प्रशासनिक व्यवस्था चलाई।


वे गोरक्षा, नारी-उत्थान, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह, स्वदेशी आदि विचारों के प्रबल पक्षधर थे। जनवरी, १८७२ में हुई एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद तमाम कूकापंथियों को मृत्युदंड मिला और गुरू राम सिंह कूका को अंग्रेजी सरकार ने बर्मा के मांडले जेल भेज दिया। अंग्रेजों के तमाम उत्पीड़न सहते हुये जेल में ही १८८५ में उनकी मृत्यु हो जाती है। गुरू राम सिंह कूका का जन्म १८१६ ई. में बसंत पंचमी के दिन ही हुआ था। 


इस तरह हम देख सकते हैं कि बसंत पंचमी से जुड़ी हमारे अतीत की तमाम घटनायें हैं। राजा भोज का जन्म इसी दिन हुआ। सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह का विवाह इसी दिन हुआ था। वहीं प्राचीन काल में बसंत पंचमी का दिन मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता था। मान्यता है कि इसी दिन सबसे पहले कामदेव ने मनुष्यों के मन में कामवासना का संचार किया था। इसी समय कामदेव के पंचशर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध प्रकृति में अभिसार को अग्रसर होते हैं।


भविष्य पुराण में बसंत काल के दौरान कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और उनकी पूजा-अर्चना का वर्णन आता है। प्राचीन काल के कालिदास से लेकर भवभूति और बाणभट्ट के हर्षचरित में भी मदनोत्सव का बखान मिलता है।  यह परंपरा सम्राट हर्षवर्धन के बाद सातवीं-आठवीं सदी तक कायम रही। भगवान् कृष्ण और कामदेव को मदनोत्सव का अधिदेवता माना जाता रहा है।


बसंत को ऋतुराज कहा गया है। इस समय सर्दी का मौसम उतार पर होता है। और सूरज की किरणों का असर धीरे-धीरे बढ़ना शुरू होता है। पर गर्मी नहीं आई होती है। इस तरह यह एक खुशनुमा मौसम होता है। जब प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। आमों की मंजरियां दिखने लगती हैं। खेतों में लहलहाते सरसों के पीले फूल एक अलग ही मनोहर दृश्य पैदा करते हैं। पीला रंग बसंत का प्रतीक है। और परिपक्वता का भी। 


बसंत पंचमी के दिन भी पीले रंग का खास महत्व है। इस दिन पीले वस्त्र पहनना और सरस्वती पूजा के दौरान खासतौर पर पीले फूल और पीली वस्तुयें उन्हें अर्पित करने का विधान है। ताकि वाणी, विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती की कृपा हम पर बनी रहे। बसंत पंचमी का पर्व इसीलिये विद्यार्थियों, अध्यापकों, लेखकों, संगीतकारों, अन्य कलाकारों और किसी भी तरह के बौद्धिक कार्यों में लगे लोगों के लिये बहुत महत्व रखता है।

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