थोड़ा- सा सुख

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रोज़  की तरह  उजली  और कलिका अपने स्कूल  जा रही थीं।

सामने  से बूढ़ी  संतो ताई आती  दिखाई  दी तो कलिका ने कहा -” लो , सुबह -सुबह  गंदीली बुढ़िया  सामने  आ गई, सारा मूड खराब हो गया ।इस कम्बख्त  को भी  अभी  आना था! “

 “कलिका, बूढ़े-बुजुर्गों  के  बारे  में  ऐसा  नहीं  बोलते । जानती  नहीं  क्लास में  मैम क्या  समझाती है …!” उजली  ने उसे  समझाते हुए कहा ।


संतो ताई  ने उनकी  बातें  सुन  लीं थीं इसलिए  पास  आकर  कलिका की ठुडी पकड़  कर  ऊपर  उठाई और  पूछा  -” तुझे  बड़े  – बूढ़ों  की  इज्जत  करना  नहीं  सिखाया  क्या  किसी   ने ? कोई  ऐसे  भी बोलता है  भला  !” फिर  उजली की तरफ देखा और प्यार से  सिर पर हाथ  रख के कहा -” अपनी सहेली को तो देख कितनी भली  है,  भगवान  इसको लंबी  उम्र  दे।

“कह कर अपने  घर की ओर चली  गई ।


संतो ताई  बुढापे  में  जो दुख  भोग रही है, भगवान  ऐसे  दुख किसी  को जवानी में  भी न दे।कुछ  साल  पहले  तक खुशहाल  परिवार  था ।बेटा  – बहू,  पोता -पोती  सब थे।एक कार दुर्घटना  ने सबकी  जिंदगी  छीन ली और   बेचारी ताई को बुढापे में  बेसहारा कर दिया ।दुखों  की  मारी किसके लिए  और किसके सहारे  जिए।सारे पडोसियों  ने मुँह  मोड़  लिया ।सब डरते हैं  कि कहीं  ताई से बोलचाल  रखी तो उसकी  जिम्मेदारी  का बोझ  न उठाना  पड़ जाए। इसलिए  वह सबसे  दूरी बनाकर  अपने जीवन के  आखिरी  दिनों  को किसी  तरह काट रही है ।भगवान  के  सिवा  उसकी  सुध लेने वाला  कोई  नहीं ।

उजली अपने  नाम से ही नहीं बल्कि  अपने  मन से भी उजली है ।दूसरों  को  सुख देने  में  ही उसे  सुख मिलता है ।इसी कारण  जिस  बुढ़िया  से सब दूर भागते हैं  वह उसके  निकट जाने के  बारे में  सोचती  रहती है। एक रोज़  सबसे नज़र  बचाकर उसके पास  जा पहुँची और बोली  -” दादी माँ हैं, आप मेरी ..हैं  न ! आज से मैं  रोज़  आपके  पास  आऊँगी ,आपके  साथ  खेलूँगी, आपकी  मदद करूँगी और  मैं  आपको  साफ़- सफाई  से रहना  भी सिखाऊँगी। आप मुझे  डाँटना मत।”उजली  की मासूमियत  ने संतो ताई को  भीतर तक  झकझोर दिया ।उसने उजली को लंबे  हाथ  कर खींच लिया और कलेजे से लगा  कर रोने  लगी ।रोते – रोते  बोली- ” कभी नहीं डाँटूँगी, बिटिया  तुझे ।तू बोलेगी तो तुझे  अपनी  दादी  बना  लूँगी, समझी ! ” 


धीरे-धीरे  हुआ  भी ऐसा ही  उजली  ने बूढ़ी  की देखभाल का सारा बोझ  अपने  नन्हे  कंधों पर  उठा  लिया ।इस तरह वह सच में  ही  दादी की दादी  बन बैठी ।उजली  की  माँ  ने संतो ताई  के पास  जाने   व उसकी  देखभाल  करने  से कभी  नहीं  रोका ।उलटे उसे  यह सब करने के लिए  बढ़ावा  दिया ।क्योंकि वह  खुद  चाहती थी  कि पडोस में  से कोई  उसकी  मदद और देखभाल के लिए  आगे  आए।बूढ़े  – बुजुर्गों  की  सेवा और देखभाल  के संस्कार  खुद  उसमें  कूट – कूट कर भरे थे तो भला उसकी  बेटी  में  क्यों न  होते !  सच तो यह था कि बेटी  के जरिए  खुद  उसने ही संतो ताई  की जिम्मेदारी  अपने  ऊपर  ले ली थी। उजली  के पापा  ने  भी इसमें  कोई  हस्तक्षेप नहीं  किया ।उसकी  नज़र  में  ऐसा करना  एक  अच्छा  पड़ोसी  होने के  नाते  उनका  कर्तव्य  था। इस अवसर  को पाना उसने  अपना  सौभाग्य  समझा ।


कुछ  भी  हो पर उजली की  वज़ह  से  संतो ताई का दुख और कष्टों  से  भरा बुढ़ापा सुख  और चैन से  बिताने के काबिल  बन गया ।खाना  खिलाने  से लेकर  नहलाने,  कपड़े  धोने- सुखाने,  घर की साफ-सफाई  आदि सब कामों  का जिम्मा  उन्होंने  हँस  कर उठा लिया । उनकी देखा देखी पडोसियों  का नजरिया भी  बदल गया ।जो उसे  मैली या गंदीली  बुढ़िया  कह कर दूर भागते थे  वही  उसके  बैठने  में खुद  में  इंसानियत  का गर्व  महसूस  करने  लगे ।एक नन्ही  सी  बच्ची  ने  सबको  सिखा दिया कि थोड़ा- सा सुख  बाँट  देने से अपना  सुख  कम नहीं  होता  बल्कि   कई गुना  बढ़  जाता है काश , हर बच्चा उजली  जैसा  और हर बड़ा  उसके मम्मी  पापा  जैसा  हो जाए  तो किसी  के  बूढ़े  माँ-बाप  के लिए  बुढापा  अभिशाप  न बने।

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