संयुक्त राष्ट्र संघ और भारत

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 स्थापना के ७५ साल पूरे होने पर संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा को संबोधित करते हुये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व में शांति और सौहार्द्रपूर्ण विकास को लक्षित इस अति महत्वपूर्ण वैश्विक संगठन में समय के समानांतर बदलाव लाने की अपील की है।

ताकि लोगों के स्वस्थ और गरिमामय विकास के संकल्प को समर्पित इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन में सबको अपनी बात रखने का बराबर हक हो, और यह अपनी अभीष्ट सार्थकता की ओर सतत गतिमान रहे। इसके साथ ही उन्होंने संघ के सबसे प्रभावशाली और निर्णायक अंग सुरक्षा परिषद् में विस्तार की आवश्यकता भी जताई, जो कि आज वक्त का तकाज़ा है। 

 पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में ही दो महायुद्धों की विभीषिका झेलने के बाद दुनिया में शांति और व्यवस्था की स्थापना हेतु द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता ‘मित्र देशों’ ने मिलकर २४ अॅक्टूबर, १९४५ को विभिन्न देशों के इस अंतर्राष्ट्रीय संघ की नींव रक्खी, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ नाम दिया गया।

 इसका उद्देश्य विश्व के प्रत्येक नागरिक हेतु स्वस्थ और गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के साथ ही, दुनिया में शांति और व्यवस्था कायम रखते हुये प्रगति के पथ पर बढ़ते रहने से है। वर्तमान में इसके १९३ सदस्य देश हैं। गौरतलब है कि इससे पहले प्रथम विश्वयुद्ध के बाद १९२९ में बना राष्ट्र-संघ उतना प्रभावी नहीं था; क्योंकि वह सैन्य हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।

पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निर्मित ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में ये कमियां सुधार ली गईं, और संसार के सबसे शक्तिशाली पांच देशों के समूह को संघ में सुरक्षा-परिषद् समूह के तौर पर मान्यता मिली, जो किसी देश की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों के खिलाफ़ कड़ा कदम उठाने में सक्षम है। 

 लोगों के मानवाधिकारों का संरक्षण और उन्हें स्वस्थ जीवन देना इस अंतर्राष्ट्रीय संस्थान का एक प्रमुख उद्देश्य है। इसीलिये, आज जब पूरा संसार एक महामारी से त्रस्त है, इस वैश्विक संघ की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्मित ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ का इसमें अहम् रोल होता है, जो अन्य सहूलियतें प्रदान करने के अलावा ऐसे संक्रमणकाल में लोगों के लिये समय-समय पर ज़ुरूरी ‘गाइडलाइन्स’ भी ज़ारी करता रहा है।

पर जिस तरह कोविड-१९ महामारी के दौर में पिछले दिनों इस पर पक्षपाती बयान ज़ारी करने के आरोप लगे, दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रतीत होता है कि इस बीमारी के आशातीत फैलते संक्रमण ने जैसे दुनिया का शक्ति-संतुलन ही परिवर्तित कर दिया है,और स्वभावतः, इस तरह संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न देशों की प्रभावशीलता भी।

 अब तक जहाँ इस संघ पर अमेरिका आदि पश्चिमी देशों के असर में काम करने का आरोप लगता आया, वहीं अब कहा जा रहा है कि उस पर चीन हावी हो चुका है। जबकि, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य चीन की साम्राज्यवादी नीतियों की कलई खुल चुकी है, जैसा कि भारत का पहले ही मानना रहा है।

लेकिन यहाँ पूछने का बड़ा सवाल यह है कि विश्व-शांति और लोगों के स्वस्थ विकास को लक्षित यह अति-महत्वाकांक्षी अंतर्राष्ट्रीय संघ यदि इसी तरह शक्तिशाली देशों के दबदबे में काम करता रहा, तो मानवता की इससे बड़ी प्रवंचना और क्या होगी! दबाव, प्रभाव या संकोच में काम करने वाली किसी संस्था से क्या न्यायसंगत व्यवहार अथवा प्रतिक्रया की उम्मीद की जा सकती है! हमें भूलना नहीं चाहिये कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के तुरंत बाद शुरू हुये ‘शीत-युद्ध’ ने दशकों तक इस संस्था के मूल अभिप्राय को ही दूषित कर रखा था।

सो, अब हमें ऐसे बाधक व निरर्थक संघर्षों से बचना होगा। ताकि मानव-कल्याण हेतु बना यह अनूठा शक्तिशाली विश्व-संघ, जिसमें कदाचित् सारी दुनिया के लोगों की अवचेतन शक्ति समाहित है, कुछ कलुषित लोगों का सियासी औज़ार न बने, बल्कि अपने मौलिक उद्देश्य को सार्थक कर सके। वस्तुतः आज संयुक्त राष्ट्र संघ को एक बार फिर से आत्मावलोकन की दरकार है।

हमें देखना होगा कि अपने पिचहत्तर वर्ष पूरे कर चुकी यह संस्था विश्व में भेद-भाव, जातिवाद, अंधराष्ट्रवाद, राष्ट्रीय संघर्ष और इन सबसे आगे निकले आतंकवाद को मिटाकर लोगों को स्वस्थ और गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करने में कहां तक सफल रहा है! ताकि, विश्व-शांति को अभिप्रेत यह सर्वसमावेशी वैश्विक संगठन कहीं अंतर्राष्ट्रीय सियासत का मंच बनकर न रह जाये।

 इसीलिये भारतीय प्रधानमंत्री ने सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता बढ़ाने का आह्वान किया है, जो कि बिलकुल वाज़िब है। क्योंकि दुनिया की १८ फीसद आबादी वाला भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाले उन प्राथमिक देशों में एक है, जिसने विश्व-शांति के दर्जनों अभियानों में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, जिनमें किसी भी अन्य देश से अधिक भारतीय सैनिक शहीद हो चुके हैं।

वर्तमान कोरोनासंकट में भी, दुनिया के सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश भारत ने डेढ़ सौ देशों को ज़ुरूरी दवाएं भेजी हैं। इसके अलावा, यह सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय पंचायत लोगों के जीवन से जुड़े संवेदनशील फैसले लेती है। आज कोरोनाकाल जैसे संकट के समय में यह बात और भी स्पष्ट हो चुकी है। सो, संयुक्त राष्ट्र का किसी संप्रभुता के असर से निकलकर बहुलतावादी मूल्यों की ओर बढ़ना ही सारी दुनिया और मानवता के लिये शुभ कहा जायेगा। जिसमें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का योगदान अपरिहार्य है।

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