भारत की तरफ से बार-बार राजनयिक व सैन्य स्तर पर आपत्ति जताते रहने के बावज़ूद चीन द्वारा सीमा पर संदिग्ध गतिविधियां ज़ारी रखने के बरक्स दोनों देशों में उलझाव घटने की बजाय बढ़ता ही चला गया। और इसके जल्द सुलझ जाने के आसार भी नहीं नज़र आ रहे। क्योंकि चीन का शातिराना दोहरा रवैया इस जलती आग में हर बार घी डालने का काम करता है।
भारत-चीन सीमा, अर्थात् ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ पर चीन की आपत्तिजनक कार्रवाईयां इस साल की शुरूआत से ही चलती आ रही हैं। इससे पहले हुये चर्चित दोकलम विवाद से इतर अब चीनी निगाहें लद्दाख क्षेत्र के उन सीमावर्ती विवादित इलाकों पर हैं, जिसे दोनों देशों के बीच “नो मेंस लैण्ड” बनाकर कायम रखने पर सहमति है। अभी दो दशक पूर्व १९९३ से २००४ की अवधि में इसे लेकर चार समझौते हो चुके हैं।
पर आजकल चीन यहाँ अपनी बेजा हरकतों से बाज नहीं आ रहा। इसी क्रम में विगत मई में उसकी शातिराना मंशा की भनक लगते ही भारत ने भी स्वयं को हर स्थिति से निपटने के लिये चाक-चौबंद करना शुरू किया। दक्षिणी चीन सागर में पहली बार देश का युद्ध-पोत उतरा।
इस तरह यह ज़ाहिर हो गया कि भारत चीनी दादागिरी के आगे झुकेगा नहीं। हमारी सांस्कृतिक विनम्रता हमारी कमजोरी नहीं। मगर इसके बाद शुरू हुई सैन्य और कूटनैतिक स्तर की बातचीत और सहमतियों को चीन द्वारा जिस शर्मनाक ढंग से तोड़ा गया उसका नतीजा गलवां घाटी में हुई खूनी झड़प के तौर सामने आया।
हालांकि इसके बाद भी भारत के संयम से बातचीत का दौर चलता रहा; शांतिवार्ताओं की तरह। पर इस बीच उनतीस-तीस अगस्त की रात भारतीय सेना को सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण भारतीय हवाई पट्टी चुशुल के पास उसकी संदेहास्पद कार्रवाइयां एक बार फिर नज़र आईं। इस बार वे गच्चा खाने के मूड में नहीं दिखे। आगे बढ़कर सैन्य महत्व की तीन चोटियों पर कब्ज़ा कर वहां अपने सैनिक भी तैनात कर दिये।
अब चीन बैकफुट पर है। वह ‘नो मेंस ज़ोन’ में हुई इस कार्रवाई को दोनों देशों के बीच हुई सैन्य और कूटनीतिक सहमति का उल्लंघन बता रहा है। गौरतलब है कि गलवां घाटी में हुई हिंसक वारदात के बाद भारत द्वारा भी इसी तरह हुई सैन्य सहमति की दुहाई पेश की गई थी, पर चीन अब तक उस सवाल पर बगलें झांकने को मज़बूर है। अब कुछ वैसी ही शिकायत चीन को भारत से है।
हालांकि उनतीस-तीस अगस्त की घटना में कोई जान नहीं गई हैं। पर दोनों देशों के बीच चल रही उठापटक इस तरह किसी समाधान तक पहुंचती नहीं नज़र आती। यह सही है कि जिस ताजा घटना से चीन का रवैया नरम पड़ता नज़र आ रहा है, और इसके मद्देनज़र चीनी विदेश मंत्री का यह संतुलित बयान, कि ” भारत-चीन के बीच सीमा रेखा स्पष्ट न होने से ही ऐसा हो रहा है,” आश्वस्त ज़ुरूर करता है।
पर चीन से मिले अब तक के अनुभवों के आलोक में उस पर सहसा यकीन करना कठिन है। एक ऐसे समय, जब समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होती नज़र आ रही है, दोनों ही देशों को आगे की कूटनीति बनाने में गहन मंथन की दरकार है।