लोकतंत्र बनाम गुंडों का राज

Ghaziabad @Wiki
Reading Time: 2 minutes

गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या ने एक बार फिर पुलिस विभाग में व्याप्त धूर्तता की पोल खोल कर रख दी है। विगत सोलह जुलाई को पत्रकार की बहन ने बेटी के साथ छेड़छाड़ की शिकायत की थी। जिसकी पैरवी दिवंगत विक्रम जोशी कर रहे थे। गुंडे उनकी इसी गुस्ताख़ी को माफ़ नहीं कर सके।

 जबकि उक्त शिकायत पर कार्रवाई तो दूर, पुलिस ने शिकायत ही दर्ज़ न की; उल्टे आरोपियों को इसकी सूचना भी दे दी। इसके बाद पत्रकार को धमकियां मिलने लगीं। उन्होंने पुलिस को इसकी भी सूचना दी। पर बीस जुलाई को अपनी दो बेटियों के साथ उसी बहन के घर से वापस आते समय रात साढ़े दस बजे बेख़ौफ़ हो चुके उन गुंडों ने विक्रम जोशी के सिर में गोली मार दी। खास बात ये, कि इससे दो घंटे पहले भी पत्रकार ने पुलिस से मदद मांगी थी, पर कोई सहारा न मिला। लड़कियां मदद के लिये गुहार लगाती रहीं; पर गूंगे-बहरे हो चुके इस आभासी से समाज में उसे सुनने वाला कोई नहीं था! यह हमारी सामाजिक संवेदना का गिरता स्तर नहीं तो और क्या है! 

 कहते हैं कि इस हत्याकांड के मुख्य अभियुक्त रवि के यहाँ पुलिस का आना-जाना चलता रहता है। इन सबका असर था कि उसकी उस क्षेत्र में ‘सरकार’ चलती थी। जो ज़रा भी आंख उठाता उसे उसके घर में ही घुसकर तब तक मारता, जब तक लोग मिन्नतें न करने लगते। ऐसे मनबढ़ व्यक्ति द्वारा इस हत्याकांड को अंजाम दिया जाना क्या कोई ताज्जुब की बात है! क्या यह पुलिस-अपराधी गठजोड़ की एक और घिनौनी मिसाल नहीं है! क्या इस हत्या में पुलिस का अहम योगदान नहीं है! यह विडंबना लगती है कि वही पुलिस है, जो कभी-कभी इतना सक्रिय होती है, जो जरा सा शक होते ही ठोक देती है।

 और फिर सरकार क्या कर रही है आख़िर! पत्नी को नौकरी और परिजनों को दस लाख की रकम मिल जाने से क्या यह सिलसिला टूट जायेगा! क्या हर ऐसे मुआवजे से सरकार कहीं न कहीं अपनी अव्यवस्था और नियंत्रणहीनता को स्वीकार नहीं करती! पर अफ़सोस कि हर बार वही सिलसिला फिर से निकल पड़ता है। निःसंदेह इसकी जड़ में पुलिस-अपराधी गठजोड़ की वही शर्मनाक दास्तान है, जिसकी एक बानगी अभी हाल ही में हमने कानपुर के बिकरू कांड में देखी है। पर अहम् सवाल तो यह है कि क्या इन सबके बीच सरकार की कोई भूमिका नहीं बनती? सूबे में किसकी चलती है! क्या एक सामान्य सभ्य व्यक्ति ऐसे माहौल में अपने साथ हुई किसी ज्यादती पर सरकार से न्याय की उम्मीद करेगा! जबकि विक्रम जोशी जोशी जैसे पत्रकार तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं। 

 एक पत्रकार अपनी जान पर खेलकर भी शासक वर्ग और शासित जनसामान्य के मध्य वह संवाद-सेतु कायम करता है जिसकी प्रेरणा से लोकतंत्र फलता-फूलता और कायम रहता है। आज विक्रम जोशी जैसे पत्रकार किसी शहीद सैनिक की तरह ही महत्वपूर्ण हैं, जो सीमा के भीतर मौज़ूद देश और संविधान के खूंखार शत्रुओं का, निहत्थे ही, केवल सत्य और कानून के दम पर, सामना करते हैं। पर हमारी सामाजिक सभ्यता-संस्कृति और व्यवस्था के ये सच्चे पहरेदार ही जब असुरक्षित हों तो सिस्टम में लोगों का कितना यकीन रह जायेगा!

 वहीं, विपक्ष जैसे बस सरकार को फ़ेल बताकर मगन है। सवाल है कि सरकार अगर इस्तीफ़ा भी दे दे तो क्या स्थिति बदल जायेगी! इस बात की क्या गारंटी है! किसी ने कोई ऐसी जिंदा मिसाल पेश की है कभी, जिस पर लोग एकबार फिर यकीन कर सकें..

More About https://en.wikipedia.org/wiki/Ghaziabad

Leave a Reply