विकास दुबे के संदिग्ध एनकाउन्टर मामले ने एकबार फिर से त्वरित पुलिसिया न्याय की परंपरा को कटघरे में खड़ा कर दिया है। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि वो एक ख़तरनाक किस्म का अपराधी था, जिसके सर पर करीब हर महत्वपूर्ण सियासी दल का वरदहस्त रहा। पर क्या इस तरह वो बड़ी मछलियाँ भी नहीं बच गईं, जिन्हें फिर कोई नया विकास निर्मित करने में ज्यादा देर न लगेगी। दूसरी तरफ़, क्या ऐसी हर घटना से हमारी न्याय व्यवस्था के साथ ही पुलिस बल की साख भी नहीं गिर जाती!
यह बात ख़ासी रोमांचक है कि इस मामले में ठीक वही ‘स्क्रिप्टेड’ सी घटना हुई, जिसकी लोगों को पहले से ही उम्मीद थी। उज्जैन से ‘ट्रांज़िट रिमांड’ पर उसे लेकर कानपुर पहुँचने के कुछ ही पहले, पुलिस काफ़िले की वही गाड़ी पलट जाती है, जिसमें अभियुक्त था। और कथित तौर पर, मौका देखकर एक पुलिसवाले का हथियार छीन कर भागने की कोशिश में वह मारा जाता है। पर यहाँ कई ऐसे लाज़वाब से सवाल रह जाते हैं, जो पुलिसिया कार्रवाई पर संदेह का पुख़्ता आधार बनते हैं। पहली अनसुलझी पहेली तो यही, कि एक पीठ दिखाकर भागने वाले के ‘सीने’ में तीन गोली कैसे लग गई! फिर मध्य प्रदेश से सफारी में चला विकास कानपुर आते-आते महिंद्रा टीयूवी में कैसे पहुँच गया; जबकि पुलिस के मुताबिक गाड़ी कहीं नहीं बदली गई! और सबसे बड़ा सवाल ये, कि अगर उसे भागना ही था, तो आत्मसमर्पण क्यों किया! साथ चल रहे मीडिया के लोगों को घटना स्थल से कुछ पहले रोक क्यों दिया! और फिर हर बार ऐसे केस में अपराधी अक्सर प्रशिक्षित पुलिस वालों का हथियार आख़िर छीन कैसे लेते हैं; जबकि नियमानुसार उन्हें इसे कड़ी से बांधकर रखना होता है! ध्यातव्य है कि इसके ठीक एक दिन पहले हुये प्रभात मिश्र के एनकाउन्टर की कहानी भी इससे बहुत कुछ मिलती-जुलती ही थी। सवाल है कि पुलिस से वैसी ही गलती ठीक दूसरे दिन भी कैसे हो गई! क्या यह तथ्य हमारी पुलिस की दक्षता व विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिह्न नहीं लगा देता!
यह अलग बात है कि विकास जैसों के साथ समाज में कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिये, उसे तो कसाब और अफ़जल गुरू की तरह ही फांसी होनी चाहिये थी। पर यहाँ जो सबसे संवेदनशील सवाल है– कि देश की व्यवस्था संविधान से चलती है, या कि पुलिसिंग से! अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब हैदराबाद की एक पशु चिकित्सक के साथ बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों को, पकड़ने के बाद ‘क्राइम सीन रिक्रिएट’ करते समय कथित तौर पर हथियार छीनकर भागने की कोशिश में पुलिस ने मार गिराया था। जबकि हाल ही में दक्षिण भारत में एक पिता-पुत्र को लॉकडाउन का उल्लंघन करने की वज़ह से पुलिस ज्यादतियों का शिकार होना पड़ा। इसी तरह हर राजनैतिक दल का संरक्षण प्राप्त कर चुके विकास दूबे का ताज़ा वाकया ऐसी घटनाओं की अगली कड़ी भर है। यह भी एक विडंबना ही कही जायेगी, कि जब तक वह सारे समाज के लिये ख़तरा था, उसे संरक्षण मिलता रहा। पर बड़ी मछलियों पर आंच आने की ज़रा आशंका हुई नहीं कि उसका एनकाउन्टर हो गया। क्या यह वाकया अपराधजगत और राजनीति के गठजोड़ की दासताँ का अंज़ाम नहीं है! हालाँकि न्यायपालिका की उलझाऊ प्रक्रियाओं और अक्सर अभियुक्तों के बरी हो जाने की दुहाई देकर ऐसी पुलिस मुठभेड़ों के पक्षधर भी कम नहीं हैं। वहीं, मसले को जातिवादी रंग देने वाले भी बहुतेरे हैं। हमें समझना होगा, कि जातिवादी मानसिकता एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कैंसर की तरह होती है। यह भी, कि ये हमारी आत्महीनता, या कहें — हमारे निज व्यक्तित्व का खोखलापन ही है कि हम किसी जाति, क्षेत्र या राजनैतिक दल की शरण में अपनी पहचान ही खो देते हैं। आज इन्हीं मनोग्रंथियों के आवेश में आकर विकास दुबे से हमदर्दी दिखाने वाले भी कम नहीं हैं।
इस अविश्वसनीय पुलिस मुठभेड़ के खिलाफ़ जनहित याचिका भी दायर की गई है। हमें यह बात कायदे से समझ लेनी चाहिये, कि कोई भी संदेहास्पद पुलिस एनकाउन्टर इसलिये गलत होता है, क्योंकि इससे कानून और न्याय व्यवस्था की साख पर बट्टा लगता है। इससे कहीं न कहीं यह भी परिलक्षित हो जाता है, कि कानून की रखवाली करने का दम भरने वाली पुलिस का क्या खुद ही संविधान और कानून में यकीन नहीं रहा! ये बातें न्यायपालिका में अविश्वास को बल प्रदान करती हैं। हमें नहीं भूलना चाहिये कि अपराधियों से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है अपराध की जड़ों पर वार करना। वास्तव में अपराधियों को पोषण और संरक्षण देने वालों के गिरेबान जब तक बचे रहेंगे, आये दिन कोई न कोई नया विकास पैदा होता रहेगा, भले दूसरी तरफ़ ऐसे एनकाउन्टर भी होते रहें..