क्या है — रेपो-रेट, रिवर्स रेपो-रेट, सीआरआर और एसएलआर

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सरकार का सालाना आर्थिक बजट हो या हाल में हुई  मौद्रिक समीक्षा, अक्सर इस दौरान हम रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, सीआरआर, एसएलआर जैसे शब्द सुनते हैं। यह शब्दावली एक अर्थशास्त्र के विद्यार्थी या विद्वान के लिये तो जानी-पहचानी हो सकती है, पर जनसामान्य के लिये इनके मायने समझना कुछ मुश्किल होता है। आइये जानते हैं इनके बारे में..

 1- रेपो रेट

 जिस तरह आम लोग बैंक से कर्ज लेते हैं वैसे ही सभी व्यावसायिक बैंक देश के केंद्रीय बैंक से ऋण प्राप्त करते हैं, जो बैंकों का बैंक कहलाता है। यह नोट छापने को अधिकृत होता है। भारत का रिजर्व बैंक ही केंद्रीय बैंक की भूमिका निभाते हुये ऐसा करता है। जिस ब्याज दर पर रिजर्व बैंक से अन्य बैंकों को पैसा उधार मिलता है, उसे ही रेपो-रेट कहते हैं।

रिजर्व बैंक द्वारा रेपो-रेट बढ़ा देने से बैंकों को उसी रकम पर अधिक ब्याज देना पड़ता है, फलतः आम जनता के लिये भी बैठकों द्वारा तद्नुरुप उधारी पर ब्याज दरें बढ़ा दी जाती हैं। अर्थात् रेपो-रेट बढ़ने से अक्सर लोगों के लिये ऋण महंगा हो जाता है, और इस तरह अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह कम हो जाता है। इसीलिये यह उपाय बढ़ती मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिये अपनाया जाता है। गौरतलब है कि हालिया मौद्रिक समीक्षा में रेपो-रेट यथावत् अर्थात् चार फीसदी बरकरार रखी गई है।

2- रिवर्स रेपो रेट

 व्यावसायिक बैंक जैसे केंद्रीय बैंक यानी रिजर्व बैंक से उधार लेते हैं, वैसे ही अपनी अधिशेष पूंजी वहां जमा भी करते हैं। इस जमा पर रिजर्व बैंक द्वारा दूसरे बैठकों को जिस दर पर ब्याज का भुगतान किया जाता है उसे ही रिवर्स रेपो रेट कहते हैं। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह रेपो-रेट से ठीक विपरीत है।

अर्थात् रेपो-रेट पर जहां बैंकों को केंद्रीय बैंक से उधार मिलता है, वहीं रिवर्स रेपो रेट वह ब्याजदर है जो रिजर्व बैंक से अन्य बैंक अपनी जमा रकम के बदले पाते हैं। ज़ाहिर है रिवर्स रेपो रेट बढ़ने से बैंक अपनी ज्यादा से ज्यादा राशि केंद्रीय बैंक या रिजर्व बैंक में जमा करने को तत्पर होंगे, और इस तरह नकदी का प्रवाह बाज़ार से बैंक की तरफ़ होगा, जिससे बाजार में नकदी कम होगी।और इस तरह यह भी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने वाला एक कारगर नैतिक उपकरण साबित होता है। 

3- सीआरआर

अर्थात् “कैश-रिज़र्व-रेशिओ” जिसे  नकद-आरक्षण-अनुपात भी कहते हैं। मूलतः यह नियम जमा-निकासी संबंधी किसी उच्चावचन को टालने के लिये है। सभी व्यावसायिक बैंकों के लिये अपनी कुल पूंजी का एक निश्चित अनुपात रिजर्व बैंक के पास जमा करने का प्रावधान है। यह किसी बैंक की कुल जमापूंजी का तीन से पंद्रह फीसदी के बीच हो सकती है, जो समयानुसार परिवर्तित होती रहती है। इसमें किया गया परिवर्तन अपेक्षाकृत दीर्घकाल में अपना असर दिखाता है।

4- एसएलआर

 इसका अर्थ है वैधानिक तरलता अनुपात। यह वह निश्चित पूंजी है, जिसे किसी बैंक को ऋण ज़ारी करने से पहले अपने पास नकदी या अन्य प्रतिभूतियों के रूप में सुरक्षित रखना अनिवार्य होता है, जिसके बिना वे ऋण नहीं दे सकते। यह अनुपात भी रिजर्व बैंक ही तय करता है। वह इसे शून्य भी कर सकता है। हालांकि भारत में एसएलआर की अधिकतम दर चालीस फ़ीसदी तक रही है।

  अब हमें मोटे तौर पर काफीकुछ स्पष्ट हो चुका होगा कि भारत का केंद्रीय बैंक, अर्थात् भारतीय रिजर्व बैंक किस तरह मौद्रिक नीतियों के ज़रिये बाजार में नकदी-प्रवाह, मुद्रास्फीति, ऋण, निवेश और करीब समूची अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखता है।

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