संसद में प्रश्नकाल

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 कोविड-१९ के कारण कुछ देर से शुरू हुये मानसून सत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ ही प्रश्नकाल को ही हटा दिया गया;

फिर तमाम विरोधों के बीच इसे अतारांकित प्रश्नों तक सीमित कर दिया गया।  प्रश्नकाल संसद सत्र की वह अवधि है जब विपक्ष सत्तापक्ष से सवाल करता है, और इस तरह सरकारी कामकाज की खामियों की ओर उसका ध्यान खींचता है। इसमें तारांकित और अतारांकित दो तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं। अतारांकित प्रश्नों का उत्तर लिखित रूप में सदन के पटल पर रखा जाता है, जबकि तारांकित प्रश्नों का उत्तर संबंधित मंत्री द्वारा मौखिक तौर पर दिया जाता है। तारांकित प्रश्नों में खास बात ये रहती है कि इसके साथ ‘क्रॉस क्वैश्चनिंग’ अर्थात् पूरक प्रश्न पूछना भी संभव होता है। ऐसे सवाल अब इस विलम्बित मानसून सत्र में नहीं उठाये जा सकेंगे।


 ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है, कि जब संसद के समय में और किसी तरह की कोई कटौती नहीं की गयी, तो सिर्फ़ प्रश्नकाल के साथ ऐसा क्यों, जिसमें संसदीय कार्यशैली की आत्मा बसती है! वह भी तब जब हम एक विकट कालखण्ड से गुजर रहे हैं, और देश जलते हुये सवालों से जूझ रहा है। क्या सरकार उन ज्वलंत प्रश्नों से बचना चाहती है जो सीधे-सीधे उसके अपने उत्तरदायित्व में हैं। 

 जो भी हो, संसद में सबसे सार्थक बहस के समय प्रश्नकाल में यूँ बेवजह कटौती हमारी सत्तर साल की संसदीय गरिमा के अनुकूल नहीं। हमें नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय लोकतंत्र में संसद ही जनहित के मुद्दों की सबसे बड़ी और निर्णायक महापंचायत है। यह जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है।

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