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ग्लोबल वॉर्मिंग

Global Warming Photo by Markus Spiske from Pexels
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ग्लोबल वॉर्मिंग

‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ का सामान्यतः अर्थ है विभिन्न कारणों से हमारी धरती का लगातार गर्म होते जाना। यह आज हमारे जलवायु और वातावरण के परिवर्तन में सबसे संवेदनशील कारक के तौर पर देखा जाता है। वस्तुतः ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ या भूमण्डलीय ऊष्मीकरण के मायने औद्दौगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के वातावरण अर्थात् वायुमंडलीय और महासगरीय तापमान में हो रही निरंतर वृद्धि से है। अक्सर जिसके चलते ही हमें आये दिन बाढ़, सूखा, असमय वर्षा, आंधी-तूफ़ान या चक्रवात, जंगल की आग और दिनोंदिन बढ़ती प्रदूषण जैसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। 

 महत्व — वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 1880 से औसत वैश्विक तापमान पूरे एक डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ चुका है, और इस कारण इस दौरान समुद्री सतह का औसत स्तर करीब आठ नौ इंच ऊपर उठा है। उनके अनुसार अगले सन् 2035 तक यह 0.3 से 0.7 डिग्री तक और भी बढ़ सकता है। यह जलवायु संबंधी आसन्न आपात स्थिति का ही सूचक है। गौरतलब है कि गर्म वातावरण अपने में अधिक पानी रोककर रखने में सक्षम होता है, और यह हवाओं की गतिकी यानी उनकी दशा-दिशा भी अपने मुताबिक कर सकता है। जिसके चलते बाढ़-सूखा या चक्रवात आदि तमाम वातावरण संबंधी अवांछित उच्चावचन पैदा होते हैं।

इसीलिये दुनिया भर के वैज्ञानिक व अन्य जागरूक लोग ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर इतने चिंतित हैं, और इस प्राकृतिक असंतुलन से निज़ात पाने को हर तरह से प्रयासरत हैं। हालांकि इसमें सबसे बड़ी बाधा हमारी आर्थिक उन्नति ही बनती है। इसीलिये इस बढ़ती वातावरण संबंधी समस्या के निवारण हेतु ही 2015 में दुनिया के दो सौ के लगभग देशों ने पेरिस में एक सर्वमान्य जलवायु-समझौते पर हस्ताक्षर किया। जिसके तहत आने वाले वर्षों में ‘ग्रीन-हाउस’ गैसों का उत्सर्जन न्यूनतम करने और ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ की वृद्धि-दर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का संकल्प लिया गया।


 कारण — वस्तुतः ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ या भूमण्डलीय ऊष्मीकरण की मुख्य कारक कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन आदि कुछ गैसें हैं, जिन्हें ‘ग्रीन-हाउस’ गैस कहा जाता है। हालांकि ये प्राकृतिक रूप से भी कुछ मात्रा में हमारे वातावरण में मौज़ूद हैं, पर इनकी अतिरिक्त उत्पत्ति होती है मानव-समाज की विभिन्न गतिविधियों से, जिनमें अधिकांश हमारी आर्थिक आवश्यकताओं से संबंधित होती हैं। घरों या कारखानों में उपयोग होने वाला ईंधन, तमाम तरह के विद्दुत यंत्र, जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल-डीज़ल से चलते हमारे वाहन, घरेलू गैस आदि सभी ‘ग्रीन-हाउस’ गैसों के उत्सर्जन हेतु प्रमुख जिम्मेदार हैं। इसके अलावा तथाकथित विकास की आवश्यकताओं के मद्देनज़र रोज बड़ी संख्या में पेड़ों का काटा जाना भी इस पर्यावरण-असंतुलन के लिये महत्वपूर्ण रूप से उत्तरदायी है।


 प्रभाव — इन ‘ग्रीन-हाउस’ गैसों में सूरज की गर्मी अपने में समाहित कर लेने की क्षमता होती है, जिससे ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ बढ़ाने में यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। कहने की ज़ुरूरत नहीं कि हमारे वायुमंडल में इन चुनिंदा गैसों की सांद्रता बढ़ने के कारण ही ग्लोबल वॉर्मिंग भी उसी अनुपात में तेजी से बढ़ती है। जिससे धरती का स्थल और समुद्री क्षेत्र गर्म होता जाता है।

महासागरों का पानी गर्म होकर वातावरण को कई तरह से प्रभावित करता है। इससे जहां एक ओर तमाम बर्फ की चट्टानें अर्थात् ग्लेशियर पिघलकर समुद्री सतह का स्तर ऊंचा कर देते हैं, तो दूसरी तरफ कम दबाव का क्षेत्र बनाकर तूफ़ानों-चक्रवातों के उठने की सहूलियतें भी पैदा करते हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन-2019’ की रिपोर्ट कहती है कि इस सदी के अंत तक दुनिया के अस्सी फ़ीसदी ग्लेशियर पिघल चुके होंगे।

इससे ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ के बढ़ते ख़तरे का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ही वर्षा के सालाना प्ररूप में बदलाव संभव हो जाता है। जिससे बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदायें आती हैं, और किसानों को इससे खास नुकसान उठाना पड़ जाता है। खासकर भारतीय किसानों को, जहां खेती मुख्यत: मानसून पर ही निर्भर है।


निष्कर्ष — स्पष्ट है कि ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ या वैश्विक ऊष्मीकरण की समस्या आज उस स्तर पर आ चुकी है जो कि हमारे अस्तित्व के लिये चुनौती बन चुकी है। और यदि समय रहते इसका कोई ठोस समाधान न खोजा गया तो यह पूरी मानव-सभ्यता पर बहुत भारी पड़ने वाला है। हालांकि दुनिया के मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने इस आसन्न संकट से मुक्ति पाने व पर्यावरण-संतुलन की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने का मार्ग खोज लिया है।

पर इसके लिये हम सबका सक्रिय और समावेशी सहयोग अनिवार्य है। और कहना न होगा, कि यदि इस तरह हम ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ पर काबू पाने में कामयाब रहे, तो यह इस सदी की हमारी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि सिद्ध होगी।

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